दुर्भासा ऋषि

             दुर्वासा ऋषि मंदिर

दुर्वासा ऋषि का जीवन परिचय तथा कहानियां........... पुराणों के अनुसार ऋषि दुर्वासा को  दुर्वासस भी कहते है, ऋषि दुर्वासा एक महान ऋषियोंं में से थे, ऋषि दुर्वासा अत्यधिक गुस्से वाले ऋषि थे| ऋषि दुर्वासा सतयुग,त्रेता युग,तथा द्वापर युग मैं भी थे, जिन्होंने हर युग में मानव केे कल्याण की शिक्षाएं तथा भक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया जो कि सभी के लिए कल्याणकारी था| ऋषि दुर्वासा शिव जी का ही रूप है| दुर्वासा ऋषि शिव जी के बहुत बड़ेे भक्तों में से एक हैं, दुर्वासा ऋषि एक महान ऋषियों में से एक थे, दुर्वासा ऋषि के क्रोध को शांत करना आसान नहीं था| दुर्वासा ऋषि के क्रोध से मानव,दानव,देवता, असुर कोई भी नहीं बच पाया|

दुर्वासा ऋषि के जन्म से जुडी अनेकों कथाएं हैं, दुर्वासा ऋषि के पिता अत्री तथा माता अनुसूईया थी| ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मानंद पुराण के अनुसार ब्रह्मा और शिव में झगड़ा हो गया था, जिससे शिव जी अत्यधिक गुस्से में आ जाते हैं, पार्वती जी के द्वारा शिव जी को समझाने पर शिव जी को अपनी गलती का एहसास होता है और वह अपने गुस्से को अनुसूईया माता के गर्भ में संचित कर देते हैं, जिससे अनुसूईया माता के एक तेज प्रतापी बालक का जन्म होता है जिसका नाम दुर्वासा पड़ता है, इसी वजह से ऋषि दुर्वासा को बहुत जल्दी क्रोध आ जाता था|

 इसके अलावा ऋषि दुर्वासा के जन्म से एक कथा और जुड़ी हुई है जो कि इस प्रकार है ऋषि दुर्वासा के पिता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे तथा माता अनुसूईया जो कि दुर्वासा ऋषि की माता थी, एक बहुत बड़ी पतिव्रता स्त्री थी| उनके पतिव्रता के चर्चे सभी जगह थे चाहे वह देवलोक क्यों ना हो| एक बार त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश, की पत्नियों ने अनुसूईया माता के पतिव्रता धर्म की परीक्षा लेनी चाहि, तीनों देवियों ने अपने-अपने पतियों को अनुसूईया माता के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए उनके आश्रम भेजा, आश्रम पहुंचने पर त्रिदेवो ने साधु का भेस धारण कर लिया और माता से भीछा मांगी, जब अनुसूईया माता भीछा लेकर आयी तो त्रिदेव ने अनुसूईया माता से कहा की हमें आप भीछा निवस्त्र होकर दे तब ही हम भीछा स्वीकार करेंगे, ऐसा कहने पर अनुसूईया माता उन त्रिदेवो को समझ गयी और उन्होंने अपने तपो बल से उन त्रिदेवो को बालक बना दिया, बालक बनने पर सारी सृष्टि में उथल-पुथल हो गई, जिस कारण से सभी देवी,देवताओं मानव,दानव सभी में चिंता व्याप्त हो गई की सृष्टि का संचालन कैसे होगा| ऐसी स्थिति में तीनों देवियों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उनका पतिव्रता का घमंड भी चूर चूर हो गया, अब तीनों देवियां माता अनुसूईया के आश्रम पहुंची और माता अनुसूईया से अपने अपने पतियों को मुक्त करने की प्रार्थना की, तीनों देवियों की प्रार्थना पर माता अनुसूईया ने तीनों देवियों का मान रखा और त्रिदेवो को मुक्त कर दिया, तब त्रिदेवो ने माता अनुसूईया को बरदान दिया की हम तीनो आपके पुत्र कहलायेंगे और वह दत्तात्रे पुत्र कहलाये जिस मे से चन्द्रमा(ब्रह्मा जी का रूप), दत्तात्रेय(बिष्णु जी का रूप),तथा दुर्वासा(शिव जी का रूप) प्राप्त हुए|

 दुर्वासा,राम तथा लक्ष्मण.......... बाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि श्री राम से मिलने जाते हैं, उस समय मृत्युु के देवता यमराज प्रभु श्रीराम से किसी विशेष विषय पर बात कर रहे होते है, प्रभु केेे आदेशानुसार किसी को भी अंदर आना मना था,  इसलिय  श्री राम नेे लक्ष्मण को दरबारी के रूूप में बाहर खड़ा कर दिया था, यमराज ने श्रीराम से यह पहलेे ही शर्त रखी हुई थी कि हम दोनों के वार्तालाप होने तक कक्ष में  कोई भी प्रवेश नही  करेगा और ना ही हम दोनों की वार्तालाप किसी और को पता पड़ेगी,
अगर कोई बीच में कक्ष में प्रवेश कर जाता है और हमारी बातें सुन लेता है तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा, इस पर प्रभु श्रीराम राजी हो जाते हैं और वचन दे देते हैं, उसी वक्त ऋषि दुर्वासा वहां आते हैं और लक्ष्मण से कहते हैं कि उन्हें श्रीराम से मिलना है, लक्ष्मण उन्हें विनय पूर्वक बार- बार समझाने का प्रयास करते हैं कि भैया अभी अंदर कुछ विशेष बात कर रहे हैं, बात खत्म होने तक का आप इंतजार करें लेकिन ऋषि दुर्वासा लक्ष्मण से जिद करते हैं और कहते हैं कि अगर तुमने मेरे आगमन की जानकारी अभी श्री राम को नहीं दी तो मैं अपने श्राप से पूरी अयोध्या को खत्म कर दूंगा, उस वक्त लक्ष्मण धर्म संकट में पड़ जाते हैं और सोचते हैं कि यहां मेरे अकेले मरने से कम से कम अयोध्या तो बच जाएगी और लक्ष्मण कक्ष में प्रवेश कर जाते हैं तथा श्री राम को दुर्वासा ऋषि के आगमन की जानकारी देते हैं, उस वक्त श्री राम यमराज के साथ अपनी वार्तालाप खत्म कर देते हैं तथा तुरंत दुर्वासा ऋषि के आवा भगत के लिए चले जाते हैं और उनकी सेवा करते हैं, सेवा करने के पश्चात ऋषि दुर्वासा अपने रास्ते चले जाते हैं, तब श्री राम को अपना यम को दिया हुआ वचन याद आता है, उस वक्त श्री राम बहुत व्याकुल हो जाते हैं, वह अपने पुत्र जैसे भाई को मृत्युदंड कैसे दें जिसके कारण वह बहुत ही मुश्किल में पड़ जाते हैं, तब वह इस दुविधा से बाहर निकलने के लिए ऋषि वशिष्ठ को बुलाते हैं, उस वक्त ऋषि वशिष्ठ श्री राम को समझाते हैं की लक्ष्मण को अपने से दूर कहीं बाहर भेज दें, लक्ष्मण का बिछड़ना भी एक मृत्युदंड के समान ही होगा, तब श्री राम लक्ष्मण को बोलते हैं कि तुम चले जाओ, लक्ष्मण आदेश पाकर सरयू नदी के तट पर चले जाते हैं|


ऋषि दुर्वासा तथा कुंती......... बात महाभारत की है, कुंती जिसे राजा कुंतीभोज ने गोद लिया हुआ था, राजा अपनी बेटी से बहुत अधिक प्रेम करते थे, राजा कुंती भोज अपनी बेटी कुंती को एक राजकुमारी की तरह रखते थे, एक बार ऋषि दुर्वासा राजा कुंती भोज के यहां मेहमान बनकर गए, तब कुंती ने ऋषि दुर्वासा की आवा-बगत की तथा पूरी तरह से मेहमानी की, ऋषि दुर्वासा कुंती की इस सेवा से बहुत अधिक प्रसन्न हुए और जाते वक्त ऋषि दुर्वासा ने कुंती को अथर्ववेद का मंत्र बताया, जिस मंत्र के जाप से कुंती अपने मनचाहे देव से संतान प्राप्त कर सकती थी, मंत्र को परखने तथा जानने के लिए कुंती ने शादी से पहले ही सूर्य नारायण का आव्हान किया तथा मंत्र का जाप किया, तब कुंती को करण प्राप्त हुए,


दुर्वासा ऋषि तथा अंबरीष................ अंबरीष को भागवत पुराण के अनुसार विष्णु जी का भक्त बताया गया है, एक समय की बात है ऋषि दुर्वासा अंबरीष के पास उनके भवन मे आये, उस समय राजा अंबरीष का निर्जला एकादशी का उपवास चल रहा होता है, राजा अंबरीष ने प्रशाद पहले ऋषि दुर्वासा को देना चाहा, लेकिन ऋषि दुर्वासा सर्वप्रथम यमुना स्नान करना चाहते थे, इसलिए ऋषि दुर्वासा अंबरीश से यह बोल कर चले गए कि वह सर्वप्रथम यमुना स्नान करेंगे फिर प्रसाद ग्रहण करेंगे, दुर्वासा ऋषि को यमुना स्नान में अधिक समय लग गया था, जिससे व्रत का उथापन का समय भी निकल रहा था, जिसकी वजह से राजा अंबरीष को चिंता लगने लगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करें, इसलिए राजा अंबरीष ने अपने अन्य गुरुओ के साथ सूझबूझ वार्तालाप करके प्रसाद ग्रहण कर लिया, जिससे उनका समय से ही व्रत पूर्ण हो सके, कुछ समय पश्चात ही ऋषि दुर्वासा वहां पहुंचते हैं, जब ऋषि दुर्वासा को इस रिच का बोध होता है तो वह बहुत अधिक क्रोध में आ जाते है, क्रोध में आकर ऋषि दुर्वासा अपनी जटाओं में से एक राक्षसी को राजा अंबरीष को मारने के लिए उत्पन्न करते हैं, राजा अमरीश उस राक्षसी को देखकर घबराते नहीं हैं बल्कि अपने आराध्य विष्णु जी की उपासना करते हैं, जैसे ही वह राक्षसी राजा अमरीश के निकट आती है, श्री विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से उस राक्षसी का अंत कर देते हैं, इसके बाद वह सुदर्शन चक्र ऋषि दुर्वासा के पीछे लग जाता है, दुर्वासा ऋषि को उस सुदर्शन चक्र से बचने के लिए पृथ्वी पर कहीं भी स्थान नहीं मिल पाता, अंत में वह अपने पिता शिव जी के पास जाते हैं तथा उनसे प्रार्थना करते हैं कि मुझे बचाएं, शिव उन्हें विष्णु जी के पास जाने के लिए बोलते हैं, जब ऋषि दुर्वासा श्री विष्णु के पास जाते हैं तो श्री विष्णु उनसे बोलते हैं कि आप राजा अमरीश के पास ही जाएं तथा उनसे माफी मांगे तब ही सुदर्शन का क्रोध शांत होगा, तब ऋषि तुरंत राजा अमरीश के पास जाते हैं तथा उनसे क्षमा याचना करते हैं, तब राजा अमरीश ऋषि दुर्वासा को तुरंत क्षमा कर देते हैं तथा अपने आराध्य श्री विष्णु से प्रार्थना करते हैं कि सुदर्शन चक्र का क्रोध शांत हो जाए, ऐसा कहने पर सुदर्शन चक्र का क्रोध शांत हो जाता है और वह अपने आप वापस लौट जाते हैं




दुर्वासा ऋषि मंदिर........... मथुरा श्रीकृष्णा की जन्मस्थली होने के बाबजूद भी यह ऋषि मुनियो की तपोभूमि भी कहलाती है, जिस मे से दुर्बासा ऋषि का आश्रम प्रमुख है, द्वापर युग मे यहां दुर्वासा ऋषि ने यमुना के तट पर तप किया था, यहां पर दुर्वासा ऋषि का आश्रम भी है|जो की बहुत प्राचीन है, यह मंदिर मथुरा जिले के ईसापुर मे पड़ता है, यहां पर बसंत पंचमी का मेला बहुत ही हर्षोउल्लास से बनाया जाता है, जिसे देखने के लिए हजारों लोगो की भीड़ उमड़ती है, मंदिर मे दुर्वासा ऋषि के साथ राधा-कृष्णा जी विराजवान है, मंदिर मन को मोहने वाला है,मंदिर प्रकरण मे नांव के द्वारा भी पहुंचा जा सकता है, मंदिर को देखने के लिए लोगो की भीड़ उमड़ती रहती है, मंदिर एक ऊंचे टीले पर है, मंदिर मे जन्माष्टमी, राधाअष्टमी, बसंत पंचमी का त्यौहार काफी हर्षोउल्लास से बनाया जाता है, ऋषि-मुनियो के आशीर्वाद से भक्त-जनों की हर मनोकामनायें पूरी होती है|
                         
                                               धन्यवाद !

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